कभी बेटी की विदाई का गौरव था हरका अब बन गई याद।

Rohit Baraik
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नरेश कुमार बेसरा :-

कभी बेटी की विदाई का गौरव था हरका अब बन गई याद।

भारतीय समाज विविधताओं से भरा हुआ है। यहाँ हर क्षेत्र, हर समुदाय और हर जनजाति की अपनी एक अलग सांस्कृतिक पहचान है।

ऐसी ही एक समृद्ध परंपरा छत्तीसगढ़ सहित कई आदिवासी क्षेत्रों में देखने को मिलती थी — हरका की परंपरा। यह न सिर्फ एक वस्तु थी, बल्कि आदिवासी समाज की सांस्कृतिक धरोहर, प्रेम और रिश्तों की पहचान का प्रतीक भी थी।

आज जबकि आधुनिकता की तेज़ रफ्तार में कई पारंपरिक विधियाँ लुप्त होती जा रही हैं, हरका भी उनमें से एक बन चुका है।

हरका क्या है?

हरका, बांस से बना एक सुंदर और मजबूत संदूक होता था, जिसे आदिवासी समाज में विशेष रूप से विवाह समारोहों में उपयोग किया जाता था।

यह केवल एक बक्सा नहीं था, बल्कि एक भावनात्मक पुल था — बेटी और उसके मायके के बीच। जब कोई लड़की ब्याह कर ससुराल जाती थी, तो उसके मायके वाले उसे यह हरका भेंट स्वरूप देते थे।

इस हरका में दुल्हन के लिए उसके मायके से मिलने वाले कपड़े, आभूषण, बर्तन, गहने, सौंदर्य प्रसाधन और कभी-कभी पारिवारिक स्मृतियाँ रखी जाती थीं।

यह हरका उसके साथ उसकी पहचान, उसकी जड़ें, और मायके का प्यार लेकर ससुराल जाता था।

हरका का निर्माण

हरका का निर्माण बांस की कलात्मक बुनाई से किया जाता था। आदिवासी कारीगर इसे बेहद निपुणता और मेहनत से बनाते थे। इसमें ढक्कन होता था जिसे बंद करके बांध दिया जाता था, ताकि सामान सुरक्षित रहे।

हरका में ढक्कन के साथ लोहा या बांस से बना एक विशेष लॉकिंग सिस्टम भी बनाया जाता था, जिससे उसमें ताला लगाया जा सके। यह व्यवस्था न सिर्फ उसमें रखे सामान की सुरक्षा के लिए थी, बल्कि यह दर्शाता था कि आदिवासी समाज में परंपरा के साथ-साथ व्यावहारिकता को भी महत्व दिया जाता था।

कुछ हरकों पर चित्रकारी या पारंपरिक डिजाइन भी बनाए जाते थे, जिससे वह और भी आकर्षक दिखते थे।

बांस का उपयोग केवल सामग्री के रूप में नहीं, बल्कि संस्कृति के प्रतीक के रूप में होता था, क्योंकि बांस आदिवासी जीवन का एक अभिन्न अंग है।

विवाह में हरका का महत्व –

आदिवासी समाज में विवाह केवल दो लोगों का नहीं, बल्कि दो परिवारों का पवित्र मिलन माना जाता था। जब दूल्हा बारात लेकर आता और विवाह की सारी रस्में पूरी हो जातीं, तब लड़की के मायके की ओर से हरका की रस्म निभाई जाती थी।

यह केवल एक भावनात्मक प्रतीक नहीं, बल्कि एक सामाजिक रिवाज़ था, जिसमें बेटी को दो हरका (संदूक) भेंट किए जाते थे।

पहले हरका में लड़की के लिए मायके से दिया गया कपड़ा, सोना-चांदी, रुपया-पैसा और सौंदर्य प्रसाधन आदि रखे जाते थे। यह उसकी नई ज़िंदगी की व्यक्तिगत ज़रूरतों और ससुराल में मान-सम्मान का प्रतीक होता था।

दूसरे हरका में रखा जाता था बासन-बर्तन, जो घर-गृहस्थी में काम आने वाले सामान होते थे — जैसे पीतल, काँसा, एल्युमिनियम के बर्तन आदि। यह सामान दर्शाता था कि बेटी अब एक गृहिणी बनने जा रही है, और वह अपने नए घर की ज़िम्मेदारियाँ संभालने के लिए तैयार है।

हरका के साथ एक भावनात्मक जुड़ाव होता था। जब दुल्हन अपने ससुराल में हरका खोलती थी, तो उसमें रखी चीज़ें उसके लिए मायके की यादें ताज़ा कर देती थीं। यह उसकी पहचान का हिस्सा बनता था।

सास-ससुर और नए परिवार के लोग भी हरका के ज़रिए लड़की के परिवार की संस्कृति और संस्कारों को पहचानते थे।

सांस्कृतिक संदर्भ और सामाजिक भावना –

हरका केवल एक वस्तु नहीं था; यह समाज की सामूहिक भावना का प्रतीक था। इसे देने में कोई दिखावा नहीं होता था, बल्कि यह आत्मीयता और अपनापन दर्शाता था।

इसमें कोई भव्यता या खर्चीली चीजें नहीं होती थीं, बल्कि घर की बनाई चीजें, सिलाई किए कपड़े, लकड़ी के कंघे, जैसी चीजें रखी जाती थीं — जो बेटी के नए जीवन की शुरुआत में उसे आत्मनिर्भर और आत्मबल से भर देती थीं।

यह परंपरा यह भी दर्शाती थी कि बेटी के मायके ने उसकी नई यात्रा की तैयारी पूरी की है।

हरका देना एक सम्मान का कार्य था। इसमें बेटी के प्रति मां-बाप का आशीर्वाद, भाई का स्नेह और पूरे परिवार की शुभकामनाएँ समाहित होती थीं।

आधुनिकता और परंपरा का टकराव –

समय के साथ जब समाज में बदलाव आने लगे, शहरीकरण और बाज़ारवाद ने परंपराओं की जगह लेनी शुरू की। अब बांस की जगह फाइबर, प्लास्टिक और स्टील के सूटकेस आ गए।

लोगों को हरका अब पुराना और असुविधाजनक लगने लगा। एक समय जो गर्व की वस्तु थी, वह अब केवल किसी कोने में पड़ी रह गई।

कुछ परिवारों ने इसे पूरी तरह त्याग दिया, तो कुछ ने इसे केवल प्रतीकात्मक रूप में रखा।

वास्तव में, यह केवल एक वस्तु का लुप्त होना नहीं था, यह एक पूरी सांस्कृतिक विचारधारा का लोप था।

आज के समय में विवाह महंगे होटल में, डिज़ाइनर परिधानों और ब्रांडेड उपहारों के साथ होते हैं, जहाँ हरका जैसे भावनात्मक उपहारों की कोई जगह नहीं बची है।

बचे हुए अवशेष और विरासत –

हालांकि, सभी जगह से यह परंपरा पूरी तरह समाप्त नहीं हुई है। आज भी कुछ आदिवासी गांवों में, खासकर बुज़ुर्गों की मौजूदगी वाले घरों में हरका की परंपरा जीवित है।

वे जानते हैं कि यह केवल बांस का संदूक नहीं, बल्कि पीढ़ियों की परंपरा, संस्कार और प्रेम की पहचान है।

कुछ सांस्कृतिक मेले, जनजातीय संग्रहालय और लोक महोत्सवों में हरका को प्रदर्शित किया जाता है। यह प्रयास सराहनीय हैं, लेकिन केवल संग्रहालयों में रख देने से परंपराएं जीवित नहीं रहतीं। उन्हें जीवन में उतारना पड़ता है।

पुनर्जीवन की संभावना –

हरका जैसी परंपराओं को बचाने के लिए हमें केवल अतीत की यादों में नहीं रहना चाहिए, बल्कि उन्हें वर्तमान में जीना चाहिए।

आज यदि हम चाहते हैं कि हमारी आने वाली पीढ़ी भी इन मूल्यों को समझे, तो हमें इन परंपराओं को पुनः अपनाना होगा।

स्थानीय हस्तशिल्प को बढ़ावा देकर, बांस उद्योग को फिर से जीवित कर,और सांस्कृतिक शिक्षा को पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाकर हम हरका जैसी विलुप्त होती परंपराओं को फिर से समाज में स्थान दे सकते हैं।

साथ ही, विवाह जैसे अवसरों पर प्रतीकात्मक रूप से ही सही, हरका को शामिल किया जाए — जिससे यह परंपरा मात्र स्मृति बन कर न रह जाए।

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