कब से मनाई जाती है सरहुल पर्व, क्या कहता है इतिहास?
सरहुल पर्व 2025:
झारखंड के विभिन्न हिस्सों में सरहुल पर्व की धूम देखने लगा है। यह झारखंड के आदिवासी समाज का प्रमुख त्योहार है, जिसे प्रकृति पूजन के रूप में मनाया जाता है।
चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को सरहुल का आयोजन होता है, जो वसंत ऋतु के आगमन और नई फसल के स्वागत का प्रतीक माना जाता है।
सरहुल पर्व के दिन सखुआ अथवा साल वृक्ष की पूजा की जाती है। इसे धरती की उर्वरता और समुदाय की समृद्धि से जोड़ा जाता है।
जल, जंगल और जमीन को अपनी संस्कृति का अभिन्न हिस्सा मानने वाले सरना धर्मावलंबी इस दिन पारंपरिक रीति-रिवाजों के साथ प्रकृति को नमन करते हैं।
श्रद्धालु पारंपरिक गीतों और नृत्य के जरिए अपनी आस्था प्रकट करते हैं।
इतिहासकारों के अनुसार झारखंड में सरहुल की परंपरा हजारों वर्ष पुरानी है। यह पर्व आदिवासी समुदाय की सांस्कृतिक विरासत को संरक्षित करने में अहम भूमिका निभाता है।
सरना स्थल पर आयोजित अनुष्ठान में ग्रामीण एकत्र होकर सामूहिक रूप से देवी-देवताओं की अराधना करते हैं।
इसके बाद पूरे गांव में खुशी की लहर दौड़ जाती है।
यह त्योहार सामाजिक एकता और भाईचारे का संदेश देता है। समुदाय के लोग पारंपरिक व्यंजन तैयार करते हैं और एक-दूसरे को आमंत्रित कर भोजन साझा करते हैं। हडिया (देशी चावल की शराब) इस पर्व का अहम हिस्सा होती है।
जिसे प्रसाद के रूप में ग्रहण किया जाता है। इस दौरान ढोल, मांदर और नगाड़ों की गूंज माहौल को संगीतमय बना देती है।
सरहुल सिर्फ धार्मिक आयोजन नहीं बल्कि पर्यावरण संरक्षण का प्रतीक भी है। इसे धरती मां के पुनर्जन्म का उत्सव माना जाता है। जब पेड़-पौधे नई पत्तियों से भर जाते हैं।
इस अवसर पर लोग पौधारोपण कर हरियाली बनाए रखने का संकल्प लेते हैं। पारंपरिक परिधानों में सजे युवक-युवतियां नृत्य कर प्रकृति के प्रति आभार प्रकट करते हैं।
आदिवासी समाज का मानना है कि सरहुल के दिन की गई पूजा से वर्षभर सुख-समृद्धि बनी रहती है। इस पर्व में प्राकृतिक संसाधनों के प्रति सम्मान की झलक देखने को मिलती है।
आधुनिक समय में भी यह परंपरा उतनी ही जीवंत है जितनी वर्षों पहले थी। ग्रामीण क्षेत्रों के साथ-साथ शहरी इलाकों में भी सरहुल उत्साह के साथ मनाया जाता है।
झारखंड सरकार भी इस पर्व को राज्य की सांस्कृतिक धरोहर के रूप में संरक्षित करने के लिए प्रयासरत है।
विभिन्न संगठनों द्वारा हर साल रैलियों और जागरूकता अभियानों का आयोजन किया जाता है।
स्कूलों और कॉलेजों में पारंपरिक प्रतियोगिताओं के जरिए युवा पीढ़ी को इस संस्कृति से जोड़ने का कार्य किया जाता है।
सरहुल के दौरान विशेष परिधान पहने लोग पारंपरिक हथियारों के साथ जुलूस निकालते हैं। इसमें बच्चे, बुजुर्ग और महिलाएं बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते हैं।
इस पर्व की सबसे खास बात यह है कि इसमें प्रकृति और समाज के बीच अटूट रिश्ता देखने को मिलता है। बदलते समय के बावजूद सरहुल की परंपराएं जस की तस बनी हुई हैं।
जलवायु परिवर्तन और वनों की अंधाधुंध कटाई को देखते हुए सरहुल की महत्ता और भी बढ़ गई है। यह पर्व हमें पर्यावरण के प्रति जागरूक होने और प्राकृतिक संतुलन बनाए रखने की प्रेरणा देता है। आदिवासी समाज इसे अपनी पहचान और अस्तित्व से जोड़कर देखता है।
इस अवसर पर आदिवासी समाज अपनी समृद्ध परंपराओं को पुनर्जीवित करता है और पूरे उल्लास के साथ धरती मां का आभार प्रकट करता है।
 
					 
			 
                                
                              
		 
		 
		 
		 
		
